गरीबी क्यों—गरीबी उन्मूलन कैसे ?
BY
न्यायमूर्ति अशोक कुमार श्रीवास्तव
पूर्व न्यायाधीश इलाहबाद और (Delhi High Court)
गरीबी क्यों ? – सीधा उत्तर है कि देश तथा प्रदेशों के सारे कर्णधार चाहे वे विधायिका या कार्यपालिका या न्यायपालिका में हों, गरीब नहीं हैं और गरीबी क्या होती है उसे जानते ही नहीं |
विडम्बना? – मगर विडम्बना यह है जब से भारतवर्ष को स्वंत्रतता मिली है सभी राजनैतिक दल वोट बटोरने के लिए भारतवर्ष के गरीबों और किसानो की हिमायत करते नज़र आते हैं | गरीबी हटाओ का नारा लगाते हैं मगर गरीबी वहीं की वहीँ रहती है | हाँ जो भी चुन कर आये वे अवश्य ही बहुत अमीर हो जाते हैं और बड़े मकान, फार्म हाउस, महंगी कारें, कम्पनियों, शिक्षण संस्थाओं, नर्सिंग होम, सिनेमा हाउस, कोल्ड स्टोरेज, होटल, हीरे जवाहरात इत्यादि के वे मालिक हो गएँ हैं | बहुतों के तो आधे पैर भारत में रहतें है और आधे विदेश में | वातानुकूलित पांच सितारा सुख जीवन उनकी जीवन शैली है | गरीबी क्या होती है उसका उन्हें किंचित भी बोध नहीं है | गरीबों के संग थोड़ी देर रहने में ही वे परेशान हो जाते हैं और किसी तरह मजबूरी में समय काट कर पांच सितारा व्यवस्था की ओर कूच कर जाते हैं | उनका ऐसा करना कदाचित गलत नहीं है क्योंकि उन्हें अगली बार टिकट मिलने की कोई गारंटी नहीं होती और अब तो यह भी पक्का नहीं रहता कि उनकी पार्टी दोबारा चुनाव जीतेगी | गरीबों से तो वे सिर्फ चुनाव के समय ही मिलते है और उनकी गरीबी को मिटाने का फिर से पूरा घडियाली आश्वासन देते हैं |एक विधायक जब पहली बार चुना गया तब उसके पास कुछ नहीं था परन्तु तीन टर्म करने के बाद उसने अपनी चल अचल संपत्ति २०० करोड़ घोषित की | ८० फीसदी वोटर उनके जाल में फिर फँस जाते है |
चुनाव-आधार जाति और वर्ग – चुनाव जाति और वर्ग के आधार पर लड़ा जाता है | वर्ग तथा जाति के कितने वोट है उस पर टिकट दिए जाते हैं और हार जीत होती है | इसलिए हर राजनैतिक दल तथा प्रत्याशी की कोशिश यही रहती है कि उनकी जाति एवं वर्ग की संख्या में बढ़त हो जिससे उतने ही उसके वोट बढ़ें | मूर्ख लोग बगैर सोचे समझे कि इससे उन्हें क्या लाभ है, बच्चे पर बच्चे पैदा करते रहतें हैं, वोटर संख्या बढ़ाते रहते हैं और साथ ही साथ उसी अनुपात में अपनी गरीबी भी | अगर कोई उन्हें समझाता है तो वे समझना नहीं चाहते है क्योंकि उनकी जाति के नेताओं ने तो उन्हें यह सपने दिखाए हुए हैं कि उनका उद्धार केवल उनकी जाति के नेता ही कर सकते हैं | इसलिए वे वोट अपने नेताओं को ही देते हैं और उस विशेष जाति के वोटरों की गिनती बढ़ाते रहते हैं |
चूंकि राजनैतिक दल अपनी आय का ब्यौरा देने में कतरा रहें है और सूचना अधिकार अधिनियम के दायरे में होते हुए भी उस अधिनियम के तहत सूचना नहीं दे रहे हैं, इसलिए अनुमान यही किया जाना चाहिए कि राजनीतिक दलों के पास भी बहुत धन है | कहाँ से है, कोई नहीं पूछता |
कार्यपालिका तो विधायिका द्वारा लिए गए निर्णयों को लागू करती है | वह गरीबी उन्मूलन की स्वयं कोई रूप रेखा नहीं बना सकती | न्यायपालिका को गरीबों की ओर सहानुभूति अवश्य होती है मगर गरीबी उन्मूलन उनके कार्यक्षेत्र में नहीं आता है |
भारतवर्ष में अमीर लगभग २ प्रतिशत – भारतवर्ष में लगभग २ प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो इतने अमीर हैं कि उनका मुकाबला विश्व के बड़े से बड़े धनाडय ही कर सकते हैं | लगभग १८ प्रतिशत ऐसे अमीर हैं कि दुनिया की हर वस्तु और हर सुख के साधन उन्हें उपलब्ध है | इन २० प्रतिशत के लिए पांच सितारा होटल, पांच सितारा अस्पताल, पांच सितारा स्कूल इत्यादि सब उपलब्ध हैं | सिवाय इश्वर के उन्हें कोई छू नहीं सकता | सरकारी तंत्र भी उनके ही इशारे पर चलता है | वे राजनीतिज्ञों से मिल कर देश में ऐसी योजनायें बनवाते हैं जिससे उन्ही का कल्याण हो | उन्हें गरीबों से कोई वास्ता नहीं होता | अगर वे अपराध करते हैं तो अपने धन के प्रभाव से सबको हिला देते हैं | बहुत मुश्किल से वे जेल जाते हैं परन्तु जुगाड़ से वहां भी शाही जीवन व्यतीत करते हैं | भारत की बढ़ी जी डी पी का पूर्ण लाभ इन्ही २० प्रतिशत लोगों को मिलता है |
लगभग ४० प्रतिशत ऐसे हैं जो मिडिल क्लास के उच्च, मध्यम और तृतीय श्रेणी में आते हैं | वे गरीब नहीं हैं और साधारण सुख की ज़िन्दगी व्यतीत करते हैं | इनमें से कुछ भ्रष्टाचार के माध्यम से उपरोक्त १८ प्रतिशत लोगों की आय का मुकाबला करने में लगे हैं और सारी मौज मस्ती का आनंद लेते हैं | इनमें से जो तृतीय श्रेणी वाले हैं वे अपना जीवन बस व्यतीत कर रहे हैं | बड़ी बीमारी हो गयी तो गरीब हो जाते हैं |
बचे लगभग ४० प्रतिशत | इनमें बहुत गरीब हैं जो गाँवों में रहते हैं या मजदूरी के लिए शहर में आ जाते हैं | इनमे अधिकांश के पास खेती नहीं है और जिनके पास है वह नाममात्र की है | विश्व बैंक के आंकड़े बताते है कि दक्षिण एशिया और अफ्रीका के कुछ भाग में विश्व के अधिकतम गरीब रहते हैं और पश्चिमी देशों में यदि औसतन जीवन स्तर १० पॉइंट है तो भारत में वह २.५. पॉइंट है | भारत में शहर के गरीबों का हाल गाँव के गरीबों से भी बुरा है | नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक परिवार के पास औसतन १० लाख रुपये तथा शहरों में २३ लाख रुपये की संपत्ति है | मगर गरीब परिवारों के पास इससे बहुत कम संपत्ति है | शहरों में १० % परिवार ऐसे हैं जिनके पास औसतन २९१ रुपये की संपत्ति है | ऐसे परिवारों के पास न घर है न जमीन | इसके विपरीत गाँव में १० % गरीबों के पास औसतन २५० रुपये की संपत्ति है | गाँव में अमीर और गरीब के बीच खायी उतनी नहीं है जितनी शहरों में है | शहरों में जहाँ यह खाई ५०००० गुना अधिक है वहीँ गाँव में यह खाई केवल २२६ गुना ज्यादा है |
४०% लोग भारतवर्ष के गरीब की निर्धनता के कारण – मेरी नज़र में यही ४०% लोग भारतवर्ष के वे गरीब हैं जिनके बारे में विचार करना आवश्यक बनता है | उनकी निर्धनता के कई कारण हैं |
- पहला कारण, जो सबसे बड़ा है, वह है इश्वर की लीला जो पूर्व जन्म में किये कर्मों का परिणाम है | उसे प्रारब्ध कहते हैं | ऐसा न हो तो क्यों कोई टाटा बिडला अम्बानी अदानी के यहाँ जन्म लेता और कोई कलुआ भुर्जी के घर | कुत्ते की योनि निकृष्ट मानी जाती है परन्तु पिछले जन्म के कर्म के अनुसार एक कुत्ता अमीर के घर में शान से और सारी सुख सुविधा के साथ रहता है और दूसरा गर्मी में खाज की बीमारी से सडकों पर तड़पता रहता है | यह तो हुआ प्रारब्ध परन्तु जन्म से गरीब को अपने इस जन्म में कर्म से गरीबी हटाने का अवसर सदैव प्राप्त है | कर्म और विवेक से वह अपनी गरीबी हटा सकता है और अमीर भी बन सकता है | हजारों क्या लाखों ऐसे उदाहरण मौजूद हैं | मगर बहुत से गरीब तो इतने निराशावादी होते हैं कि वे अपने उत्थान के बारे में सोचते तक नहीं हैं | वे जिस हाल में हैं उसी में पड़े रहना पसंद करते हैं
- दूसरा कारण अशिक्षा है | गाँव में शिक्षा के साधन नगण्य हैं | यदि स्कूल हैं तो उनका स्तर निम्न कोटि का है और जो शिक्षा वहां मिल रही है वह सही मार्गदर्शन नहीं देती है |
- तीसरा कारण बार बार की बीमारी है | कुपोषण के कारण वे जल्दी जल्दी बीमार पड़ते हैं | गाँव में तो झोला छाप डॉक्टर ही होते हैं जो बिना जानकारी अगड़म बगड़म इलाज और उलटी सीधी दवाएं देते रहते हैं | अगर मर्ज़ बढ़ गया तो आनन फानन शहर भागना पड़ता है और प्राइवेट नर्सिंग होम में लूटे जाते हैं | कर्जा चढ़ जाता है जिसको चुकाने में और भी गरीब हो जाते हैं |
- चौथा है मुकदमेबाजी | आपसी रंजिश हुयी तो कुछ ऐसे नासमझ है कि वे गाली गलौज और मार पीट करते हैं जिसमे क़त्ल भी हो जाते हैं | यह प्रायः देखा गया है कि वे गुस्सा या भावावेश में क़त्ल कर देते है और तब जेल का भी डर नहीं रहता है | यदि जेल गए, फिर तो अगर जमीन है तो वह बिक जाती है और अगर जमीन नहीं है तो उधारी हो जाती है जिसे चुकाने में पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाती है | सेशन और मजिस्ट्रेट की अदालतों में फौजदारी मुक़दमे अधिकतर गाँव के ही होते हैं | जिले के फौजदारी वकीलों की आमदनी अधिकतर गाँव के ऐसे गरीबों से ही है |
- पांचवीं वजह देशी शराब है जो अब गाँव में बहुत पी जाती है | आये दिन छपता है कि ज़हरीली शराब पीकर कई मर गए | गाँव का जवान वर्ग बर्बाद हो गया है | अक्सर सुर्खियाँ रहती है कि चार पांच लड़कों ने शराब पीकर किसी लड़की को उठा लिया और उसका बलात्कार करके उसे मार डाला और लाश खेत में फ़ेंक दी | पकडे जाते हैं तो फिर कोर्ट कचहरी का चक्कर और पैसे की बर्बादी | वैसे भी शराब की इतनी लत पड़ जाती है कि खाना मिले न मिले शराब तो पीनी ही है | कुपोषण यदि है तो शराब ज़हर हो जाती है जो गंभीर बीमारियों को जन्म देती है | इस प्रकार आमदनी का बड़ा हिस्सा शराब की लत और उससे हुई शारीरिक बीमारी के इलाज में ही निकल जाता है |
- छठा कारण गाँव में रोज़गार के साधन का न होना है | खेतों में मजदूरी ही एक साधन होता है जिसमे बहुत सीमित आमदनी होती है | खेती भी बट जाती है जिसमें पूरे परिवार का पोषण नहीं हो पाता है | कुछ फैक्ट्री में चले जातें हैं, कुछ शहर में आकर मजदूरी करते है, कुछ रिक्शा चलाते हैं आदि | शहर में न उनके पास रहने की जगह होती है न ही उन्हें शुद्ध वातावरण मिलता है जिससे वह बीमार पड़ते हैं और कमाई अस्पताल और दवा में ही घुस जाती है | शाम को चूँकि कोई मनोरंजन का साधन नहीं होता है तो शराब पीकर मन हल्का करतें हैं | बगैर पुष्ट भोजन के शराब स्वास्थ्य के लिए अति घातक हो जाती है और खर्चा कराती है | कभी कभी वेश्याओं पर कमाई न्योछावर करते रहते हैं |
- अब एक नया ट्रेंड दिखने में आ रहां है कि गाँव के अधिकतर युवा श्रम करना ही नहीं चाहते | वे तो लूट पाट और डकैती इत्यादि में पड़ गएँ है जोकि समाज, क़स्बा, तहसील, शहर, प्रदेश और देश के लिए बहुत घातक है | पंचायती राज की राजनीति ऐसे युवाओं के लिए उर्वराशक्ति का काम करती है |
गरीबी उन्मूलन कैसे हो?
मेरे मत में गरीबी का पूर्ण उन्मूलन तो असंभव है, केवल गरीबी में कमी संभव है | चूँकि सब तो अमीर नहीं हो सकते इसलिए विचार यह होना चाहिए कि गरीबी कैसे कम की जा सके जिससे सभी का जीवन स्तर गरीबी रेखा के ऊपर आ जाय और वे एक सामान्य जीवन व्यतीत कर सकें | मेरे सुझाव निम्नवत है |
- भारतवर्ष में लोकतंत्र है | केंद्रीय और प्रदेशीय सरकारें चुन कर आती हैं | चूँकि हमारी संवैधानिक व्यवस्था के तहत सरकार जनता के हित के लिए होती है, इसलिए सरकार का कर्त्तव्य है कि वह सामाजिक न्याय दे, देश के धन का न्यायिक वितरण करे, अमीरी और गरीबी के अंतर को कम करे, सबको शिक्षा का अवसर दे और सबके लिए उपयुक्त रोज़गार मुहैया करे | परन्तु देखा जा रहा है सब कुछ इसके विपरीत ही हो रहा है | जिस अनुपात में अमीरी बढ़ रही है उसी अनुपात में गरीबी भी बढ़ रही है | बेरोज़गारी दिन प्रतिदिन बढ़ रही है| सामाजिक न्याय तो कहीं दिखता नहीं है | केवल वोट बटोरने के लिए सरकारी खजाने से धन लुटाया जा रहा है जिसका अधिकांश हिस्सा राजनीतिज्ञों और सरकारी सेवकों की जेब में जाता है | कुछ हिस्सा निकम्मों के हाथ भी लग जाता है जो उनको और निकम्मा बना देता है | मुफ्त में मछली बांटी जा रही है बजाय इसके कि लोगों को मछली मारना सिखाया जाय जिससे वे जीविकोपार्जन स्वयं कर सकें | हमारे यहाँ चींटी और ग्रास हापर का किस्सा बिलकुल सटीक बैठ रहा है | चींटी दिन रात काम कर के बुरे वख्त के लिए घर बनाती है और उसमें खाने की सामग्री रखती है | ग्रास हापर महोदय कुछ नहीं करते केवल मस्त घूमते रहते है | जब बरसात आती है तो भीगने लगते है, खाने को कुछ नहीं मिलता और भूखे सोना पड़ता है | आज के सामाजिक न्याय देने वालों को बहुत गुस्सा आता है कि यह क्या कि एक तो पेट भर खाना खाकर घर में आराम से सोये और दूसरा भूखा रहे और भीगे | वे सामाजिक न्याय के आधार पर चींटी को आदेश देते हैं कि बाहर आओ, ग्रास हापर को पेट भर भोजन दो और घर में सोने दो | ग्रास हापर से नहीं पूछते कि उसने श्रम करके भोजन क्यों नहीं इकठ्ठा किया और छप्पर क्यों नहीं बनाया | अगले साल फिर वही होता है | चींटी देश छोड़कर अमरीका के सिलिकॉन सिटी में जा बसी और वहां आराम से रह रही है | ग्रास हापर महोदय हर साल बरसात में भीगते हैं और भूखे सोते हैं |
- मेरे मत में यदि गरीबी कम करनी है तो चुनी गयी सरकारें राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक नीतियाँ बनाते समय ऊपर के चींटी और हापर के किस्से से सीख लें, सामाजिक न्याय सही दिशा में दें और निकम्मों को और निकम्मा न बनायें | यह सबको विदित है कि वर्तमान की सामाजिक न्याय देने वाली योजनाओं ने भला तो कुछ नहीं किया बल्कि युवा वर्ग को निकम्मा ही बनाया है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है | इसलिए ऐसी स्कीमों के बजाय सबसे पहले तो समय समय पर गाँव में कैंप लगाये जाएँ जिनके माध्यम से उन्हें स्वावलम्बी बनने की नसीहत दी जाय | उनमे आत्म गौरव जगाएं और खुद्दारी की भावना जाग्रत करें | उनको कोई धन इत्यादि बगैर मेहनत के न दें और उनके परिश्रम में अवश्य मदद करें | उनकी शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि वे किसी पर निर्भर न रहे और अपने पौरुष से ही अपना जीविकोपार्जन करने की प्रवृत्ति उनमे बढ़े | किसी के आसरे रहने की प्रवृत्ति को कम किया जाय | उनके स्वास्थय के लिए व्यवस्था गाँव में ही हो और उन्हें छोटी बीमारी के लिए शहर न आना पड़े |
- गाँवों को इतना समृद्ध बनाया जाये कि गाँव वाले जब तक कोई मजबूरी न हो शहर की ओर न देखें | शहर वालों को यदि उनकी आवश्यकता हो तो वे गाँव जाएँ जैसे सॉफ्टवेर के लिए पश्चिमी देश भारत आ रहें हैं | गाँव में आज के दिन उपयुक्त स्कूल नहीं हैं, उचित अस्पताल नहीं हैं, उद्योग नहीं हैं, टेकनोलोजी नहीं है, बिजली नहीं है, उपयुक्त पानी के साधन नहीं हैं, उपयुक्त सड़कें नहीं हैं इत्यादि | यह सब मोहैया किये जाएँ | वर्ष २०१४ में केन्द्र में नयी सरकार आई, सारे सांसदों से अपेक्षा की गयी कि गाँव के उत्थान के लिए वे अपने अपने क्षेत्र में एक एक गाँव को गोद लें और उनका उत्थान करें परन्तु देखने में कुछ नहीं आ रहा है | यह तो सही है कि सब गाँव वाले टाटा बिडला अम्बानी अदानी नहीं बन सकते परन्तु लोअर मिडिल क्लास के अनुरूप जीवन तो व्यतीत कर ही सकते हैं यदि उनके लिए उपरोक्त साधन उपलब्ध किये जाएँ | मगर यह तभी हो सकेगा जब राजनैतिक इच्छा शक्ति हो | यदि राजनीतिज्ञ गाँव वालों को बंधक वोटर ही बनाकर रखना चाहते हैं तो कुछ नहीं हो सकता |
- आज की परिस्थितियों में जब तक उपरोक्त व्यवस्थाएं नहीं हो सकें तब तक इतना तो किया जा सकता है कि गाँव गाँव में मोबाइल स्कूल भेजे जाएँ जिसमें उत्कृष्ट अध्यापक हों जो गाँव के बच्चों को सही शिक्षा दें, उनका चरित्र निर्माण करें, उन्हें सही और गलत में भेद करना सिखाएं और पाप एवं पुण्य का संज्ञान कराएँ | साथ ही साथ देश में क्या हो रहा है उसका भी उन्हें बोध कराएँ, टेकनोलोजी सिखाएं और व्यवसाय की सूझ बूझ दें | उनके कौशल का उत्थान करें और उन्हें एक अछा नागरिक बनने की प्रेरणा दें | उनमें राष्ट्रभावना उत्पन्न की जाय | चिकित्सा के लिए गाँव गाँव में निश्चित दिन मोबाइल मेडिकल वेन भेजे जाएँ जो पूर्ण रूप से सुसज्जित हों और जिसमें कुशल डॉक्टर हों | जब हमारी कार की पूरी सर्विसिंग हमारे घर में हो जाती है तो मोबाइल मेडिकल वेन गाँव क्यों नहीं भेजे जा सकते? केवल सोच और लगन की आवश्यकता है | हम नहीं कहते कि गाँव में यूनिवर्सिटी, डिग्री कॉलेज, मेडिकल कॉलेज, एन्जिनियरिंग कालेज इत्यादि खोले जाएँ | मेरा केवल यह मानना है कि गाँव में ही टेक्निकल इंस्टिट्यूट खोले जाएँ जिनमे वोकेशनल ट्रेनिंग दी जाय जिससे गाँव के बच्चों को ऐसी शिक्षा के लिए शहर न जाना पड़े | एक तो गाँव वाले शहरी खर्चा उठा नहीं पाते हैं और दूसरी ओर शहर में जाकर बच्चों के बिगड़ने की संभावना बढ़ जाती है | इसके आलावा शहरीकरण भी कम होगा और शहरों की पर्यावरण इत्यादि की समस्याएं भी कम होंगी | गाँव में छोटे छोटे उद्योग खोले जाएँ जिससे गाँव वालों को गाँव में ही जीविकोपार्जन का साधन मिले |
- शहर में जो गरीब हैं उनके लिए आवास योजना बने जिससे वे स्वच्छ वातावरण में रह सकें और बीमार कम पड़ें | उनकी न्यूनतम मजदूरी इतनी निर्धारित की जाय जिससे वे गरीबी रेखा से ऊपर रह सकें | ये न्यूनतम मजदूरी समय समय पर उसी अनुपात में बढे जिस अनुपात में मंहगाई बढती है और सरकारी कर्चारिओं का मंहगाई भत्ता बढ़ता है | इनके कल्याण के लिए एक कल्याण निधि बनायीं जाय जिससे इन्हें बीमारी में इलाज और इनकी बीमारी के दौरान इनके परिवार को भत्ता मिले | यदि अधिवक्ता कल्याण निधि बन सकती है जिसमे सरकार करोड़ों रुपये का अनुदान देती है तो गरीबों के लिए शहरों के उन मजदूरों के लिए जो किसी अधिनियम में मजदूर की संज्ञा में नहीं आते, कोई कल्याण निधि क्यों न बनायीं जाय | हांलाकि हर कंस्ट्रक्शन कॉन्ट्रैक्ट से मजदूर सेस वसूला जाता है जो मजदूर के कल्याण पर खर्चा जाता है, मगर सारे मजदूर कंस्ट्रक्शन कॉन्ट्रैक्ट में ही काम नहीं करते हैं | वे अन्य जगह भी काम करते हैं |
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